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Thursday 22 December 2022

अल्बैर कामू की 'प्लेग' : कब्रिस्तान में लाशें अपने दफ़न होने का इंतजार करने लगीं





हम सब जो भी कोविड के दौर से गुजकर आए हैं हमें लगता है कि ये लंबा लॉकडाउन, क्वारंटीन होते लोग, अपनों से दूर लोग...लाशों का ढेर...ये सब पहली बार हुआ है लेकिन यही सब कुछ पहले भी हो चुका है...इस किताब से गुजरना शानदार अनुभव है...इस किताब से कुछ लाइनें जिनपर हाईलाइटर दौड़ता चला गया...

फाटकों के बंद होने का सबसे बड़ा नतीजा ये हुआ कि लोग एक दूसरे से बिछड़ते चले गए बस टेलीग्राम ही एक सहारा था जिस पर सिर्फ 10 शब्दों का ही तार भेजा जा सकता था लोगों के मन में अपनों के लिए अथाह बातें और शब्द थीं लेकिन सब कुछ बस 10 शब्दों में सिमटकर रह गया...जैसे " स्वस्थ हूं। हमेशा तुम्हारे बारे में ही सोचता रहता हूं, प्यार" 

आपकी शादी होती है आप कुछ ज्यादा दिनतक मुहब्बत करते हैं काम करते हैं। आप इतना ज्यादा काम करते हैं कि आप मुहब्बत को भूल जाते हैं।

काम से थका हुआ पति,गरीबी,बेहतर भविष्यकी आशा का लोप हो जाना,घर में बिताई गई खामोंश शामें- ऐसी परिस्थियों में भला प्रेम का उन्मादकैसे जिंदा रह सकता था?

डॉक्टर, अपने कर्तव्य के प्रति इतनी निष्ठा क्यों दिखाते हो जबकि तुम परमेश्वर में यकीन नहीं करते हो?

डॉक्टर- अगरा मेरा किसी सर्वशक्तिमान परमेश्वर में यकीन होता तो वह बीमारों का इलाज नहीं करता और उन्हें परमेश्वर के रहम पर छोड़ देता। लेकिन फिलहाल तो मैं बस इतना ही जानता हूं कि मेरे सामने बीमार लोग हैं, जिनका इलाज होना चाहिए मैं उन्हें बचाने की भरसक कोशिश करता हूं, बस । 

और क्या यह परमेश्वर के हक में बेहतर हीं होगा अगर हम उसमें यकीन करना छोड़ दें और अपनी पूरी ताकतसे मौत के खिलाफ लड़ें,आसमान की तरफ नजरें उठाए बगैर जहां वह खामोश बैठा है?

तुम्हें ये बातें किसने सिखाईं डॉक्टर ?

डॉक्टर- पीड़ा ने 

दुनिया में जो बुराई है वह हमेशा अज्ञान से पैदा होती है इंसान कमोबेश अज्ञान के शिकार हैं इसी को हम अच्छाई या बुराई कहते हैं।

सिर्फ कलाकर ही अपनी आंखों का इस्तेमाल करना जानते हैं।

महामारी के दिनों में लोगों के पास सांत्वना का एक ही साधन था कि "जो भी हो कइयों की हालत तो मुझसे भी गई-गुजरी है"

जिस रफ्तार से मुर्दें दफनाए जाते थे उसे देखकर हैरानी होती थी। सारी औपचारिकताएं धीरे-धीरे खत्म हो गई थीं।

प्लेग का मरीज अपने परिवार के लोगों से दूर ही मर जाता था।



खाने-पीने की दुकानों के आगे खड़ा होने में हो लोगों का सारा वक्त कट जाता था उन्हें यह सोचने की फुरसत ही नहीं थी कि उनके आसपास के लोग किस तरह मर रहे है और किसी दिन वे खुध भी इसी तरह मर जाएंगे।

उस वक्त ताबूतों की, मुर्दों को लपेटने की कफ़नों की और कब्रिस्तान में जगह की कमी हो गई थी।

कब्रिस्तान में लाशें अपने दफ़न होने का इंतजार करने लगीं।

मृतकों के रिश्तेदारों से मुर्दों के रजिस्टर में दस्तख़त करने के लिए कहा जाता था जिससे जाहिर होता था कि इंसान और कुत्तों की मौत में फर्क किया जा रहा है। 

ये बस कुछ बातें हैं जो हाईलाइट की गईं...पूरी किताब पढ़ना शानदार अनुभव है।


Wednesday 1 April 2020

कोरोना के लिएु मीडिया को विलेन मिल चुका है...अब खतरा भी कम है !

जेएनयू में देश विरोधी नारे के लिए किसी आम इंसान से कोई नाम पूछो तो एक ही नाम याद होगा- कन्हैया कुमार
नागरिकता कानून को लेकर पूरे देश में प्रदर्शन हुए लेकिन किसी से पूछो तो एक ही जगह याद होगी-शाहीन बाग और एक ही इंसान- शरजील इमाम दिल्ली में दंगों के लिए किसी आम इंसान से पूछो तो उसे भी एक ही नाम याद होगा- ताहिर हुसैन
और अब कोरोना के लिए निजामुद्दीन मरकज याद करवाया जा रहा है, टीवी पर कोई भी चैनल खोल कर देख लीजिए साफ-साफ नफरत उगली जा रही है और इस घटना को सीधे इस्लाम से जोड़ा जा रहा है पर कोई ये जवाब नहीं दे रहा कि आनंद विहार में मजूदरों की भीड़ किस धर्म की थी और उसे रोकने की जिम्मेदारी किसकी थी?
अब सवाल ये है कि ये एक-एक नाम ही क्यों याद रहते हैं सबको? और जवाब ये है कि हर घटना का मीडिया के द्वारा एक ही विलेन बनाया जाता है..और उसके पीछे छिपाया जाता है असली नाम जिसकी जिम्मेदारी और जवाबदेही सबसे ज्यादा होनी चाहिए...जिससे सवाल सबसे ज्यादा सवाल होने चाहिए....वो है गृहमंत्रालय, वो हैं गृहमंत्री....ये सभी घटनाएं दिल्ली में हुई हैं और दिल्ली में प्रशासनिक जिम्मेदारी गृहमंत्री की होती है आपने कभी किसी भी चैनल पर गृह मंत्री का फोटो लगाकर किसी एंकर को उनसे सवाल पूछते हुए देखा है? दिल्ली के दंगे रोकने की जिम्मेदारी किसकी थी? आनंद विहार और निजामुद्दीन दोनों जगह भीड़ जमा हुई इसे रोकने की जिम्मेदारी किसकी थी?कल से सभी चैनल हिंदू-मुस्लिम कर रहे हैं कोई पूछेगा कि सरकार टेस्ट की संख्या क्यों नहीं बड़ा पा रही है, डेढ़ अरब की आबादी में जितने टेस्ट हमने अब तक किए हैं उतने 5 करोड़ की आबादी वाला दक्षिण कोरिया दो दिन में कर लेता है?

सरकारें चाहें तो कुछ भी कर सकती हैं पर करती क्यों नहीं? क्योंकि आप नहीं चाहते!

'
'सरकार कर तो रही है और कितना करे?इतनी बड़ी आबादी में फैसले लेने कोई आसान काम नहीं है। ये सभी बेवकूफ लोग हैं जो गांव भाग रहे हैं, इतनी जल्दी तो भूखा कोई नहीं मरता, सरकार सबके लिए खाने का इंतजाम कर तो रही है, टाइम लगता है''इसी तरह की बेतुकी दलीलें दी जा रही हैं कुछ पत्रकारों और सरकार के समर्थकों की तरफ से....वैसे ये सरकारें इन्हीं लोगों के लिए इन्हीं के वोट से बनाई जाती हैं...यही कम पढ़े-लिखे लोग किसी पढ़े लिखे को चुनते हैं जिससे वो इनके लिए, जो सही हो, या इन्हें ध्यान में रखकर फैसले लें लेकिन सभी सरकारें फैसले लेते वक्त इन्हें ही भूल जाती हैं...जबकि वोट दें ये, भूखे रहें ये, लाठी खाएं ये और बदनाम हों तो भी यही लोग।
लॉक डाउन हुआ तो फैक्ट्री,कंपन्नियां बंद हुईं और जब ये घर जाने लगे तो ट्रेन,बस सब बंद...कितने ही दिनों से ये सड़कों पर हैं अब जब शोर मचा तो बसें चला दी गईं, ट्रेन अब भी  बंद हैं अगर इन्हें ध्यान में रखकर फैसला लिया होता तो जैसे चीन और इटली से पूरे खतरे के साथ लोगों को एयर लिफ्ट किया था, उनकी स्क्रीनिंग कर, 14 दिन आइसोलेशन में रखकर देश में उनके घर जाने दिया वैसे ही इन मजदूरों के साथ भी किया जा सकता था....इस पर कई लोग कह रहे हैं कि इतने लोगों को 14-15 कहां रखा जाए,कैसे इनकी जांच हो? 


तो आपको अगर कुंभ का मेला याद हो तो उसकी तैयारी भी याद होंगी जिसकी पूरी दुनिया में तारीफ हुई थी....सरकार दिल्ली,नोएडा,गाजियाबाद कहीं भी एक कैंप लगा सकती है और कुंभ की तैयारी जिन लोगों ने की थी उन्हें इसमें लगाया जा सकता है...सरकारें चाहे तो कुछ भी कर सकती हैं नहीं यकीन है तो चुनाव का वक़्त याद कर लीजिए किसी बड़े नेता का चुनाव का मंच 4 घंटे में तैयार हो जाता है वो भी AC लगा हुआ।लेकिन क्या जरूरत है सरकार को भी अस्पताल बनवाने की जब हम मंदिर मस्जिद से ही खुश हैं। अब 
सरकार की प्राथमिकता देखिए, केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर प्रेस कॉफ्रेंस कर कहते हैं कि दर्शकों की मांग पर हमने रामयण शुरू की है...मीडिया इस खबर को प्रमुखता देता है, फिर कुछ लोग मांग करते हैं कि महाभारत भी दिखाया जाए...मंत्री जी फिर सुन लेते हैं और महाभारत का भी प्रसारण शुरू हो जाता है हम जैसे लोग सवाल उठाते हैं तो सरकार के समर्थक कहते हैं कि आपको रामायण से क्या दिक्कत है?अरे भई रामायण से नहीं, सरकार की प्राथमिकताओं से दिक्कत है?जो कुछ दिन बाद तुम्हें भी होगी जब जान पर बन आएगी।

Saturday 4 January 2020

गुड न्यूज़ वो फिल्म जो आपको हंसाते हुए संवेदनशील बना जाएगी


ऑफिस में एक महिला साथी जो 8 महीने की प्रेगनेंट थी...अपनी बात किसी से कह रही थी कि इन दिनों में हमें बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है लेकिन सबसे ज्यादा परेशानी होती है सोने में, क्योंकि हम करवट नहीं ले सकते, हमें पूरी रात पीठ के बल ही सोना पड़ता है, उस वक्त काम में ध्यान था तो बात कानों तक ही पहुंच कर रह गई दिल तक नहीं पहुंची...लेकिन सोते वक्त वो बात याद आई और याद आया वो सकून, जो मिलता है बहुत देर एक ही करवट लेटने के बाद करवट बदलने पर।

कल जब फिल्म goodnewzz देखी जिसमें करीना कपूर अक्षय कुमार को बताती हैं कि एक बच्चे के जन्म में एक औरत कितना और क्या-क्या झेलती है और उसमें एक पुरुष का क्या योगदान होता है?वैसे आप मजाक में कुछ भी कह लें, कितनी भी मर्दानगी दिखा लें लेकिन एक बच्चे के जन्म में एक पुरुष का योगदान महज 1 प्रतिशत ही होता है और बच्चे को 9 महीने पेट में रखने,उसे जन्म देने और उसे पालने में एक महिला की पूरी जिंदगी खप जाती है...और बावजूद इसके आदमी के मुंह से अक्सर, ये मेरा खून है,मेरा वारिस है, मेरे वंश को आगे बढ़ाएगा जैसी बातें ही सुनने को मिलती हैं...खैर ये फिल्म अपनी जबरदस्त कॉमेडी के लिए तो जानी ही जाएगी लेकिन उस जरूरी मैसेज के लिए भी जानी जाएगी जो दिया है करीना कपूर और कियारा के किरदारों ने जिसमें दोनों ने बेहद बारीकी से प्रेगनेंशी के दौरान होने वाली परेशानियों और उस दौरान एक महिला के इमोशंस को पर्दे पर उतारा है...ये फिल्म एक बार सभी को जरूर देखनी चाहिए खासकर लड़कों को, जिससे वे अपने आस-पास मौजूद लड़कियों और महिलाओं को और अच्छे से समझ सकें निश्चित ही जब वे फिल्म देखकर बाहर निकलेंगे तो कुछ संवेनशील होकर निकलेंगे जो इस मशीनी होते दौर में बेहद जरूरी भी है।

Friday 6 December 2019

सुनिए..मुख्यमंत्री जी उन्नाव की बेटी आपसे कुछ कहना चाहती है...


तालियों का शोर थोड़ा कम कीजिए...मैं एक सवाल पूछना चाहती हूं...उन न्यायाधीश से जिनसे मैंने बारबार कहा कि मेरी जान को खतरा फिर भी आपने उन आरोपियों को जमानत क्यों दी?
एक सवाल उस पुलिस से जो एनकाउंटर में माहिर है तो उसके होते हुए मेरा एनकाउंटर कैसे हो गया?
और एक आखिरी सवाल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी से कि आपके होते हुए एक ही जगह पर दो-दो घटनाएं कैसे हो जाती हैं?और लड़की को बलात्कार के बाद FIR लिखवाने के आत्मदाह की धमकी क्यों देनी पड़ती है?अगर उस वक़्त आप अपने विधायक को बचाने की जगह उस लड़की के साथ खड़े होते तो मैं जिंदा होती...

वैसे तो ये सवाल मीडिया को पूछने चाहिए लेकिन वो सब तो ताली बजाने में व्यस्त हैं...उन्हें लगता है कल एनकाउंटर से सब सुधर चुका है...इसलिए मुझे पूछने पड़ रहे हैं...और आप ये सोचकर चुप मत रहना कि मैं तो रही नहीं तो जवाब कौन सुनेगा...अब आपसे जवाब हर ज़िंदा लड़की को चाहिए...अभी भले ही तालियों का शोर है लेकिन जैसे-जैसे ये शोर कम होगा आपसे सवाल पूछे जाएंगे.. इसलिए तैयारी कर लीजिए मुख्यमंत्री जी।

Wednesday 17 July 2019

लड़की नहीं भाग रही हैं बल्कि समाज इतना धीमे चल रहा है कि उसे हर हक मांगती लड़ती भागती हुई दिख रही है...


साक्षी और अजितेश के मामले में लोगों की वो सोच सामने आ रही है जिसमें किसी की झूठी शान और इज्जत किसी की जान से ज्यादा बढ़कर मानी जा रही है।और दुख इस बात का है कि इस सोच में नई पीड़ी भी शामिल है।सभी को लड़की ही गलत लग रही है, सभी को वो लड़की परिवार के खिलाफ बागी लग रही है लेकिन ‘’बगावत हमेशा बंधन के खिलाफ होती है, डर के खिलाफ होती है, विश्वास के खिलाफ बगावत कभी नहीं होती’’ एक लड़की का घर से भाग जाना समाज के लिए कितनी बड़ी बात हो जाती है? एक परिवार के लिए कितनी शर्म की बात हो जाती है, लेकिन एक लड़की जब भागने का फैसला लेती है तो उसके पीछे डर होता है मौत का, उसे पता है कि अगर वो नहीं भागी तो उसके घरवालों का प्यार जाति से प्यार के सामने बौना हो जाएगा।अहमदाबाद का रहने वाले हरकेश सिंह ने उर्मिला के साथ जिंदगी बिताने और मौत से बचने के लिए 181 नंबर की हेल्पलाइन से मदद मांगी। काउंसलर ने उर्मिला के मां बाप को समझाया भी लेकिन जैसे ही उर्मिला के पिता दशरथ सिंह को पता चला कि बाहर गाड़ी में हरकेश भी है, वे अपने रिश्तेदारों के साथ बाहर आए और हरकेश सिंह को गाड़ी से उतारकर मार दिया। सोचिए पुलिस के सामने मार दिया।आज ऐसी न जाने कितनी ही खबरें आए दिन अखबारों में पढ़ने को मिलती रहती हैं, उन पर एक अजीब सी खामोशी छाई रहती है।वीडियो वायरल होने के बावजूद, पूरा मामला मीडिया में छाने के बावजूद साक्षी और अजितेश पर हमला हो जाता है और वो भी कोर्ट परिसर में सोचिए कितनी सुरक्षित है एक लड़की? दरअसल एक लड़की जो जिंदा है, बोल रही है लोगों को दिक्कत हो रही है। साक्षी मिश्रा उर्मिला की तरह नहीं थी।साक्षी ने अपने विधायक पिता राजेश मिश्रा पर भरोसा नहीं किया। दरअसल कुछ लोगों को दिक्कत ये है कि एक लड़की टीवी पर बैठकर जातिवादी समाज के खिलाफ बोल कैसे रही है उस पारिवारिक ढांचे पर चोट कैसे कर रही है?जिसमें घर की, समाज की सबकी इज्जत का ढेका एक लड़की ही उठाती है,पहले एक घर को घर बनाती है और फिर उसकी मर्जी पूछे बिना उसे किसी और घर पहुंचा दिया जाता है, वो उसे भी अपना घर बना लेती है, ये जानते हुए भी कि उसके घर के बाहर भी कभी उसके नाम की नेम प्लेट तक नहीं लगेगी।ऐसी लड़की जब खुलेआम बोलेगी तो इस समाज को दिक्कत तो होगी ही, ऐसी लड़की की तो तस्वीर टंगी होनी चाहिए थी फूल माला के साथ, और तब टीवी वाले भी उसके फोटो के साथ खबर चलाते ऑनर किलिंग की एक और शिकार, तब ना किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचती न हमारी संस्कृति का इतना नुकसान होता जैसा अब हुआ है।दरअसल लड़की नहीं भाग रही हैं बल्कि समाज इतना धीमे चल रहा है कि उसे हर हक मांगती लड़ती भागती हुई दिख रही है।

Sunday 23 June 2019

कबीर सिंह सिर्फ पर्दे पर देखने के लिए है,रीयल लाइफ में कबीर सिंह ना होता है और ना होना चाहिए...

हाल ही में रिलीज हुई फिल्म #KabirSingh की तारीफ भी हो रही है और आलोचना भी...तारीफ होनी ही चाहिए क्योंकि इस फिल्म में शाहिद कपूर ने गजब की एक्टिंग की है...उनकी ऐनर्जी, उनका गुस्सा और वो सारी चीज़ें जो इस किरदार के लिए ज़रूरी थीं, उन सब चीज़ों पर शाहिद ने निश्चित तौर पर मेहनत की और वो स्क्रीन पर दिखती भी हैं...इसी तरह की एक्टिंग रितिक रोशन भी करते नजर आते हैं...कियारा खूबसूरत लगी हैं और क्लाईमेक्स में एक्टिंग भी दिखा जाती हैं।
वैसे ये समीक्षा लिखने की वजह फिल्म का अच्छा या बुरा होना नहीं है...वो तो आप फिल्म देखकर खुद ही तय कर लेंगे...ये लिखने की वजह है, कि आखिर कबीर सिंह चाहिए किसे...कौन चाहेगा कि उसका कबीर सिंह जैसा बेटा हो, जिसे गुस्सा काबू करना नहीं आता हो। कौन चाहेगा कि उसका कबीर सिंह जैसा भाई हो...जो अपने बड़े भाई पर हाथ उठा देता हो...कौन वो लड़की होगी जो चाहेगी कि उसका कबीर सिंह जैसा बॉयफ्रैंड या पति हो जो लड़की जिसे वो प्यार करता है उसे अपनी प्रॉपर्टी समझता हो...और खुद से अलग उस लड़की का वजूद ही नहीं मानता हो...इंटरवल से पहले कबीर सिंह का क्यारा को थप्पड़ मारकर ये कहना कि तुम जो भी हो मेरी वजह से हो, कहना अखरता है...हो सकता कुछ लड़कियों को इस तरह के प्रेमी पसंद आते हों...जो लड़की को मारकर अपने प्यार का सबूत देते हों...वैसे प्यार तो कोई भी कर लेता है लेकिन इज़्ज़त देने वाले कम ही मिलते हैं।

एक सलाह उन नए 'कबीरों' को जो फिल्म देखकर कबीर सिंह जैसा बनने की सोच रहे होंगे...कि कबीर सिंह सिर्फ पर्दे पर देखने के लिए ही है, बस रील लाइफ में ही अच्छा लगता है, रीयल लाइफ में कबीर सिंह ना होता है और ना होना चाहिए...फिल्म के अंत में कबीर सिंह भी सुधर जाता है तो अगर आखिर में सुधरना ही है तो क्यों कबीर सिंह बनकर अपनी जिंदगी का कुछ खूबसूरत हिस्सा खराब करना। अब अंत में इस फिल्म से जुड़ी सबसे खूबसूरत चीज... और वो हैं दादी जो बेहद लाउड फिल्म में ठंडी हवा के झोंके की तरह आती हैं...और उनकी एक बात जो फिल्म देखकर निकलने के बाद से अब तक याद है..

''आप किसी को खुश करने की कोशिश में उसका दुःख नहीं बाँट सकते...हर किसी को अपने कष्ट खुद ही सहने पड़ते हैं''